Monday, 28 April 2014

गुलज़ार साहिब की नज़में दीप के साथ

मैं कुछ कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुंधलाने लगा है अब तखय्युल में 
तेरे खत आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़ को कागज़ पे रखके
मैंने चाहा था की पिन कर लूँ
की जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में |

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तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक

ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा

कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

इलायची के बहुत पास रखे पत्थर पर

ज़रा सी जल्दी सरक आया करती है छाँव

ज़रा सा और घना हो गया है वो पौधा

मैं थोड़ा थोड़ा वो गमला हटाता रहता हूँ

फकीरा अब भी वहीं मेरी कॉफी देता है

गिलहरियों को बुलाकर खिलाता हूँ बिस्कुट

गिलहरियाँ मुझे शक़ की नज़रों से देखती हैं

वो तेरे हाथों का मस्स जानती होंगी...

कभी कभी जब उतरती हैं चील शाम की छत से

थकी थकी सी ज़रा देर लॉन में रुककर

सफेद और गुलाबी मसूरे के पौधों में घुलने लगती है

कि जैसे बर्फ का टुकड़ा पिघलता जाए विहस्की में

मैं स्कार्फ ..... गले से उतार देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन पहन कर अब भी मैं तेरी महक में कई रोज़ काट देता हूँ

तेरे उतारे हुए दिन टँगे हैं लॉन में अब तक

ना वो पुराने हुए हैं न उनका रंग उतरा

कहीं से कोई भी सीवन अभी नहीं उधड़ी

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शफक 

रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही देखा है

शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोगन

रोज़ मटियाले से पानी में ये घुल जाता है.

रोज़ साहिल पे खड़े हो के यही सोचा है

मैं जो पिघली हुई रंगीन शफक का रोगन

पोंछ लूँ हाथों पे

और चुपके से इक बार कभी

तेरे गुलनार से रुखसारों पे छप से मल दूँ.

शाम का पिघला हुआ सुर्ख सुनहरी रोग

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रूह देखी है कभी रूह को महसूस किया है ?

जागते जीते हुए दुधिया कोहरे से लिपट कर

साँस लेते हुए इस कोहरे को महसूस किया है ? 

या शिकारे में किसी झील पे जब रात बसर हो

और पानी के छपाकों में बजा करती हूँ ट लियाँ 

सुबकियां लेती हवाओं के वह बेन सुने हैं ?

चोदहवीं रात के बर्फाब से इस चाँद को जब

ढेर से साए पकड़ने के लिए भागते हैं

तुमने साहिल पे खड़े गिरजे की दीवार से लग कर

अपनी गहनाती हुई कोख को महसूस किया है ?

जिस्म सौ बार जले फ़िर वही मिटटी का ढेला

रूह एक बार जेलेगी तो वह कुंदन होगी 

रूह देखी है ,कभी रूह को महसूस किया है ?