Friday, 5 September 2014

शाम


फ़ैज़ की एक ख़ूबसूरत सी नज़म    *शाम*
जो उनके संग्रह
*दस्त-ए-तह-ए-संग*
से ली गई है.

इस तरह है कि हर एक पेड़ कोई मंदिर है
कोई उजड़ा हुआ, बे-नूर पुराना मंदिर
ढूंढ़ता है जो ख़राबी के बहाने कब से
चाक हर बाम, हर एक दर का दम-ए-आख़िर है
आस्मां कोई पुरोहित है जो हर बाम तले
जिस्म पर राख मले, माथे पे सिंदूर मले
सर-निगूं बैठा है चुपचाप न जाने कब से

इस तरह है कि पस-ए-पर्दा कोई साहिर है
जिसने आफ़ाक़ पे फैलाया है यूँ सहर का दाम
दामन-ए-वक़्त से पैवस्त है यूँ दामन-ए-शाम
अब कभी शाम बुझेगी न अँधेरा होगा
अब कभी रात ढलेगी न सवेरा होगा

आस्मां आस लिए है कि ये जादू टूटे
चुप की ज़ंजीर कटे, वक़्त का दामन छूटे
दे कोई शंख दुहाई, कोई पायल बोले
कोई बुत जागे, कोई साँवली घूँघट खोले