Monday, 2 June 2014

तन पे लगती काँच की बूँदे....

तन पे लगती काँच की बुँदे
मन पे लगे तो जाने
बर्फ से ठंडी आग की बुँदे
दर्द चुगे तो जाने

लाल सुनहरी चिंगारी सी
बेले झूलती रहती है
बहार गुलमोहर की लपटे
दिल में उगे तो जाने

बारिश लम्बे लम्बे हाथों से
जब आकर छूती है
ये लोबान सी सांसें
थोड़ी देर रुके तो जाने

जिसे तुम भटकना कहती हो न मानसी
मैं उसे और जानने की तलाश कहता हूँ
इक और जानने की तलाश
मैं इस जमी पे भटकता हूँ कितनी सदियों से
गिरा वक़्त से कट के लम्हा उसकी तरह
बदन मिला तो कली के लिए भटकता रहा
काँच की बूँदें
तन पे लगती
काँच की बूँदें मन पे लगे तो जाने
तन पे लगती काँच की बुँदे
मन पे लगे तो जाने...

[गुलज़ार साहिब]