Wednesday, 23 July 2014

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी....

हज़ारों ख़्वाहिशें ऐसी कि हर ख़्वाहिश पे दम निकले,
बहुत निकले मेरे अरमान लेकिन फिर भी कम निकले ।

डरे क्यों मेरा क़ातिल क्या रहेगा उसकी गर्दन पर
वो ख़ूँ जो जो चश्मे-तर से उम्र यूँ दम-ब-दम निकले ।

निकलना ख़ुल्द से आदम का सुनते आये थे लेकिन,
बहुत बेआबरू हो कर तेरे कूचे से हम निकले ।

भरम खुल जाए ज़ालिम तेरे कामत [1]दराज़ी[2]का
अगर उस तुर्रा-ए-पुर पेचो-ख़म[3] का पेचो-ख़म निकले

हुई जिनसे तवक़्क़ो[4]ख़स्तगी[5] दाद पाने की
वो हम से भी ज़ियादा ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम[6] निकले

ज़रा कर ज़ोर सीने में कि तीरे-पुर-सितम[7] निकले
जो वो निकले तो दिल निकले ,जो दिल निकले तो दम निकले

मगर लिखवाए कोई उसको ख़त तो हमसे लिखवाए
हुई सुबहऔर घर से कान पर धर कर क़लम निकले।

मुहब्बत में नही है फ़र्क़ जीने और मरने का,
उसी को देख कर जीते हैं जिस क़ाफ़िर पे दम निकले ।

ख़ुदा के वास्ते पर्दा न काबे से उठा ज़ालिम,
कहीं ऐसा न हो याँ भी वही पत्थर सनम निकले ।

कहाँ मैख़ाने का दरवाज़ा 'ग़ालिब' और कहाँ वाइज़[8]
पर इतना जानते हैं कल वो जाता था के हम निकले।

ग़ालिब

कामत=क़द
दराज़ी=ऊँचाई
पेचो-ख़म=बल खाए हुए तुर्रे का बल
तवक़्क़ो=चाहत
ख़स्तगी=घायलावस्था
ख़स्ता-ए-तेग़े-सितम=अत्याचार की तलवार के घायल
तीरे-पुर-सितम=अत्याचारपूर्ण तीर
वाइज़=उपदेशक