इच्छाओ के भीगे चाबुक
चुपके-चुपके सहता हूँ
दूजे के घर यूँ लगता है
मौजे पहने रहता हूँ
नंगे पाँव आँगन में
कब बैठूँगा
कब कोई घर होगा
दीवारों की चिंता रहती है
दीवार में कब कोई दर होगा
लोगो के घर में रहता हूँ
कब अपना कोई घर होगा...
[गुलज़ार साहिब]