Thursday 30 November 2017

अँधेरे का *दीपक*

अँधेरे का *दीपक*
================
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
कल्पना के हाथ से कमनीय जो मंदिर बना था ,
भावना के हाथ से जिसमें वितानों को तना था,
स्वप्न ने अपने करों से था जिसे रुचि से सँवारा,
स्वर्ग के दुष्प्राप्य रंगों से, रसों से जो सना था,
ढह गया वह तो जुटाकर ईंट, पत्थर कंकड़ों को
एक अपनी शांति की कुटिया बनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
बादलों के अश्रु से धोया गया नभनील नीलम
का बनाया था गया मधुपात्र मनमोहक, मनोरम,
प्रथम उशा की किरण की लालिमासी लाल मदिरा
थी उसी में चमचमाती नव घनों में चंचला सम,
वह अगर टूटा मिलाकर हाथ की दोनो हथेली,
एक निर्मल स्रोत से तृष्णा बुझाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
क्या घड़ी थी एक भी चिंता नहीं थी पास आई,
कालिमा तो दूर, छाया भी पलक पर थी न छाई,
आँख से मस्ती झपकती, बातसे मस्ती टपकती,
थी हँसी ऐसी जिसे सुन बादलों ने शर्म खाई,
वह गई तो ले गई उल्लास के आधार माना,
पर अथिरता पर समय की मुसकुराना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
हाय, वे उन्माद के झोंके कि जिसमें राग जागा,
वैभवों से फेर आँखें गान का वरदान माँगा,
एक अंतर से ध्वनित हो दूसरे में जो निरन्तर,
भर दिया अंबरअवनि को मत्तता के गीत गागा,
अन्त उनका हो गया तो मन बहलने के लिये ही,
ले अधूरी पंक्ति कोई गुनगुनाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
हाय वे साथी कि चुम्बक लौहसे जो पास आए,
पास क्या आए, हृदय के बीच ही गोया समाए,
दिन कटे ऐसे कि कोई तार वीणा के मिलाकर
एक मीठा और प्यारा ज़िन्दगी का गीत गाए,
वे गए तो सोचकर यह लौटने वाले नहीं वे,
खोज मन का मीत कोई लौ लगाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?
क्या हवाएँ थीं कि उजड़ा प्यार का वह आशियाना,
कुछ न आया काम तेरा शोर करना, गुल मचाना,
नाश की उन शक्तियों के साथ चलता ज़ोर किसका,
किन्तु ऐ निर्माण के प्रतिनिधि, तुझे होगा बताना,
जो बसे हैं वे उजड़ते हैं प्रकृति के जड़ नियम से,
पर किसी उजड़े हुए को फिर बसाना कब मना है?
है अँधेरी रात पर दीवा जलाना कब मना है?

~हरिवंश राय "बच्चन~
~Harivansh Rai
 Bachchan~

कौन तुम मेरे हृदय में?

कौन तुम मेरे हृदय में?

[Here is excerpt from a famous poem of Mahadevi Verma. Love takes root in the heart and suddenly the world looks so different! ]

कौन मेरी कसक में नित
मधुरता भरता अलक्षित?
कौन प्यासे लोचनों में
घुमड़ घिर झरता अपरिचित?
स्वर्ण स्वप्नों का चितेरा
नींद के सूने निलय में!
कौन तुम मेरे हृदय में?

अनुसरण निश्वास मेरे
कर रहे किसका निरन्तर?
चूमने पदचिन्ह किसके
लौटते यह श्वास फिर फिर?
कौन बन्दी कर मुझे अब
बँध गया अपनी विजय मे?
कौन तुम मेरे हृदय में?

एक करुण अभाव चिर -
तृप्ति का संसार संचित,
एक लघु क्षण दे रहा
निर्वाण के वरदान शत-शत;
पा लिया मैंने किसे इस
वेदना के मधुर क्रय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

गूंजता उर में न जाने
दूर के संगीत-सा क्या!
आज खो निज को मुझे
खोया मिला विपरीत-सा क्या!
क्या नहा आई विरह-निशि
मिलन-मधदिन के उदय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

तिमिर-परिवार में
आलोक-प्रतिमा है अकम्पित;
आज ज्वाला से बरसता
क्यों मधुर घनसार सुरभित?
सुन रही हूँ एक ही
झंकार जीवन में, प्रलय में?
कौन तुम मेरे हृदय में?

मूक सुख-दुख कर रहे
मेरा नया श्रृंगार-सा क्या?
झूम गर्वित स्वर्ग देता -
नत धरा को प्यार-सा क्या?
आज पुलकित सृष्टि क्या
करने चली अभिसार लय में?
कौन तुम मेरे हृदय में??

*(श्रद्धेय महादेवी वर्मा)*

गुलज़ार साहिब


कभी-कभी, जब मैं बैठ जाता हूँ
अपनी नज़्मों के सामने निस्फ़ दायरे में
मिज़ाज पूछूँ
कि एक शायर के साथ कटती है किस तरह से ?

वो घूर के देखती हैं मुझ को
सवाल करती हैं ! उनसे मैं हूँ ?
या मुझसे हैं वो ?
वो सारी नज़्में,
कि मैं समझता हूँ
वो मेरे 'जीन' से हैं लेकिन
वो यूँ समझती हैं उनसे है मेरा नाक-नक्शा
ये शक्ल उनसे मिली है मुझको !

मिज़ाज पूछूँ मैं क्या ?
कि एक नज़्म सामने आती है
छू के पेशानी पूछती है -
"बताओ गर इन्तिशार है कोई सोच में तो ?
मैं पास बैठूँ ?
मदद करूँ और बीन दूँ उलझने तुम्हारी ?"

"उदास लगते हो," एक कहती है पास आ कर
"जो कह नहीं सकते तुम किसी को
तो मेरे कानों में डाल दो राज़
अपनी सरगोशियों के, लेकिन,
गर इक सुनेगा, तो सब सुनेंगे !"

भड़क के कहती है एक नाराज़ नज़्म मुझसे
"मैं कब तक अपने गले में लूँगी
तुम्हारी आवाज़ कि खराशें?"

एक और छोटी सी नज़्म कहती है
"पहले भी कह चुकी हूँ शायर,
चढ़ान चढ़ते अगर तेरी साँस फूल जाये
तो मेरे कंधे पे रख दे,
कुछ बोझ मैं उठा लूँ !"

वो चुप-सी इक नज़्म पीछे बैठी जो टकटकी बाँधे
देखती रहती है मुझे बस,
न जाने क्या है उसकी आँखों का रंग
तुम पर चला गया है
अलग-अलग हैं मिज़ाज सब के
मगर कहीं न कहीं वो सारे मिज़ाज मुझमे बसे हुए हैं
मैं उनसे हूँ या....

मुझे ये एहसास हो रहा है
जब मैं उनको तखलीक़ दे रहा था
वो मुझे तखलीक़ दे रही थीं !!

-- गुलज़ार

Wednesday 29 November 2017

"Kholo Kholo Apni Aankhen"

Poem....
Kholo kholo apni ankhen
Aur gaur se suno?
Deney ko to bohut
kuch Hai,
Par apna saa kuch dena
Chahti hoon.
Ek boond suraj ki,
Ek qatra aasman ka,
koyal ki aadhi kook
Aur kuch sapne jagmagatey.
Accha lagey toh aur maango
Deney ko toh bohut
kuch hai,
Par apna saa kuch dena
Chahti hoon.
Aasman saa aaienaa,
Ek dibbi titliyon ki,
Ek chamach nadi ki
Dhar aur aik muthi
Zindagi.
Accha lagey toh aur maango
Deney ko toh bohit kuch
Hai,
Par apna sab kuch
Dena chahti hon.

【from movie "Paap"(2003)】

Monday 27 November 2017

"Kholo Kholo Apni Aankhen"

Poem....
Kholo kholo apni ankhen
Aur gaur se suno?
Deney ko to bohut
kuch Hai,
Par apna saa kuch dena
Chahti hoon.
Ek boond suraj ki,
Ek qatra aasman ka,
koyal ki aadhi kook
Aur kuch sapne jagmagatey.
Accha lagey toh aur maango
Deney ko toh bohut
kuch hai,
Par apna saa kuch dena
Chahti hoon.
Aasman saa aaienaa,
Ek dibbi titliyon ki,
Ek chamach nadi ki
Dhar aur aik muthi
Zindagi.
Accha lagey toh aur maango
Deney ko toh bohit kuch
Hai,
Par apna sab kuch
Dena chahti hon.

【from movie "Paap"(2003)】