Saturday 31 May 2014

Tera pukarana mere naam ko

wo pyar se pukarna tera mere naam ko
jaise padhna ho tera kisi chahat ke
paigaam ko

kuch kahe bina samajh lena ulfat
benaam ko
aur nigahon se kabul karna mere
salaam ko

har dafa bebaak kar dena benoor si
shaam ko

pal mein kar dena riha berukhi ke har
ilzaam ko aye khuda ab toh de koi sila mere ishq
ke anjaam ko
taki paa sake hum bhi mohabbat mein
bekhudi ke makaam ko

Thursday 29 May 2014

जाने क्यों....वीर ज़ारा

जाने क्यूँ, ख़्वाबों का मौसम है , और मै हूँ
मौसम है, और मैं हूँ
जाने क्यूँ, यादों की शबनम है , और मै हूँ
शबनम है, और मै हूँ

यादें लायी हैं, खुशियाँ भी, आंसू भी
जाने क्यूँ, इक ऐसा संगम है , और मैं हूँ 
संगम है और मै हूँ

बरसे जो रंग इतने सारे, रंगीन हुए सब नज़ारे
लेकिन मेरा दिल कहीं भी, लगता नहीं बिन तुम्हारे
तुमको , बस तुमको , दिल ढूंढे दिल मांगे
जाने क्यूँ, हर लम्हा ये सितम है, और मैं हूँ
ये सितम है, और मै हूँ
जाने क्यूँ, ख़्वाबों का मौसम है , और मै हूँ
मौसम है, और मै हूँ

ये वादी अब सो गयी है, कोहरे में ही खो गयी है
साड़ी फ़िज़ा सांस रोके, गुमसुम सी अब हो गयी है
सारी, दुनिया में, अब कोई नहीं जैसे
जाने क्यूँ, बस मेरा हमदम है, और मै हूँ 
हमदम है, और मै हूँ
जाने क्यूँ, यादों की शबनम है, और मै हूँ
शबनम है , और मै हूँ

यादें , लायी हैं, खुशियां भी , आंसू भी
जाने क्यूँ , इक ऐसा संगम है, और मै हूँ
संगम है , और मै हूँ

Wednesday 28 May 2014

गोपालदास 'नीरज'-- मगर निठुर न तुम रुके


मगर निठुर न तुम रुके

मगर निठुर न तुम रुके, मगर निठुर न तुम रुके!
पुकारता रहा हृदय, पुकारते रहे नयन,
पुकारती रही सुहाग दीप की किरन-किरन,
निशा-दिशा, मिलन-विरह विदग्ध टेरते रहे,
कराहती रही सलज्ज सेज की शिकन शिकन,
असंख्य श्वास बन समीर पथ बुहारते रहे,
मगर निठुर न तुम रुके!
पकड़ चरण लिपट गए अनेक अश्रु धूल से,
गुंथे सुवेश केश में अशेष स्वप्न फूल से,
अनाम कामना शरीर छांह बन चली गई,
गया हृदय सदय बंधा बिंधा चपल दुकूल से,
बिलख-बिलख जला शलभ समान रूप अधजला,
मगर निठुर न तुम रुके!
विफल हुई समस्त साधना अनादि अर्चना,
असत्य सृष्टि की कथा, असत्य स्वप्न कल्पना,
मिलन बना विरह, अकाल मृत्यु चेतना बनी,
अमृत हुआ गरल, भिखारिणी अलभ्य भावना,
सुहाग-शीश-फूल टूट धूल में गिरा मुरझ-
मगर निठुर न तुम रुके!
न तुम रुके, रुके न स्वप्न रूप-रात्रि-गेह में,
न गीत-दीप जल सके अजस्र-अश्रु-मेंह में,
धुआँ धुआँ हुआ गगन, धरा बनी ज्वलित चिता,
अंगार सा जला प्रणय अनंग-अंक-देह में,
मरण-विलास-रास-प्राण-कूल पर रचा उठा,
मगर निठुर न तुम रुके!
आकाश में चांद अब, न नींद रात में रही,
न साँझ में शरम, प्रभा न अब प्रभात में रही,
न फूल में सुगन्ध, पात में न स्वप्न नीड़ के,
संदेश की न बात वह वसंत-वात में रही,
हठी असह्य सौत यामिनी बनी तनी रही-
मगर निठुर न तुम रुके!

गोपालदास 'नीरज' --पीर मेरी, प्यार बन जा


पीर मेरी, प्यार बन जा

पीर मेरी, प्यार बन जा !

लुट गया सर्वस्व, जीवन,

है बना बस पाप- सा धन,

रे हृदय, मधु-कोष अक्षय, अब अनल-अंगार बन जा !

पीर मेरी, प्यार बन जा !
अस्थि-पंजर से लिपट कर,

क्यों तड़पता आह भर भर,

चिरविधुर मेरे विकल उर, जल अरे जल, छार बन जा !

पीर मेरी, प्यार बन जा !
क्यों जलाती व्यर्थ मुझको !

क्यों रुलाती व्यर्थ मुझको !

क्यों चलाती व्यर्थ मुझको !

री अमर मरु-प्यास, मेरी मृत्यु ही साकार बन जा !

पीर मेरी, प्यार बन जा !

मौत तू एक कविता है

मौत तू एक कविता है
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको

डूबती नब्ज़ों में जब दर्द को नींद आने लगे
ज़र्द सा चेहरा लिये जब चांद उफक तक पहुँचे
दिन अभी पानी में हो, रात किनारे के करीब
ना अंधेरा ना उजाला हो, ना अभी रात ना दिन

जिस्म जब ख़त्म हो और रूह को जब साँस आऐ
मुझसे एक कविता का वादा है मिलेगी मुझको
[गुलज़ार साहिब]

स्पर्श

कुरान हाथों में लेके नाबीना एक नमाज़ी
लबों पे रखता था
दोनों आँखों से चूमता था
झुकाके पेशानी यूँ अक़ीदत से छू रहा था
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर रहा हो

मैं हैराँ-हैराँ गुज़र गया था
मैं हैराँ हैराँ ठहर गया हूँ

तुम्हारे हाथों को चूम कर
छू के अपनी आँखों से आज मैं ने
जो आयतें पढ़ नहीं सका
उन के लम्स महसूस कर लिये हैं

पिया तोरा कैसा अभिमान

पिया तोरा कैसा अभिमान - Piya Tora Kaisa Abhimaan (Shubha Mudgal, Hariharan)
Movie/Album: रेनकोट (2004)
Music By: देबज्योती मिश्रा
Lyrics By: गुलज़ार
Performed By: शुभा मुदगल, हरिहरन

हरिहरन
पिया तोरा कैसा अभिमान

सघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बालम हमार
अंगना बड़ा सुनसान
पिया तोरा...

अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे
लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस, रूखे बेस
मनवा बेजान
पिया तोरा...

बोल सखी काहे करी साचों सिंगार
ना पहिनब अब सना-कांच न हार
खाली चन्दन लगाओ अंग मा हमार
चन्दन गरल समान
पिया तोरा...

शुभा मुदगल, गुलज़ार
पिया तोरा कैसा अभिमान

किसी मौसम का झौंका था
जो इस दीवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
गये सावन में ये दीवारें यूँ सीली नहीं थीं
न जाने इस दफ़ा क्यूँ इनमें सीलन आ गयी है
दरारें पड़ गयी हैं
और सीलन इस तरह बहती है जैसे
ख़ुश्क रुख़सारों पे गीले आँसू चलते हों

सघन सावन लायी कदम बहार
मथुरा से डोली लाये चारों कहार
नहीं आये केसरिया बलमा हमार
अंगना बड़ा सुनसान

ये बारिश गुनगुनाती थी, इसी छत की मुंडेरों पर
ये घर की खिड़कियों के काँच पर उंगली से लिख जाती थी संदेसे
बिलखती रहती है बैठी हुई अब बंद रोशनदानों के पीछे

अपने नयन से नीर बहाये
अपनी जमुना ख़ुद आप ही बनावे

दोपहरें ऐसी लगती हैं
बिना मोहरों के खाली खाने रखे हैं
न कोई खेलने वाला है बाज़ी
और ना कोई चाल चलता है

लाख बार उसमें ही नहाये
पूरा न होयी अस्नान
फिर पूरा न होयी अस्नान
सूखे केस रूखे भेस
मनवा बेजान

न दिन होता है अब न रात होती है
सभी कुछ रुक गया है
वो क्या मौसम का झौंका था
जो इस दिवार पर लटकी हुई तस्वीर तिरछी कर गया है
पिया तोरा.

गुलज़ार साहिब जी के लफ्ज़.....


क्या लिए जाते हो तुम कन्धों पे यारो
इस जनाज़े में तो कोई भी नहीं है,
दर्द है न कोई, न हसरत है, न गम है
मुस्कराहट की अलामत है न कोई आह का नुक्ता
और निगाहों की कोई तहरीर न आवाज़ का कतरा
कब्र में क्या द$फन करने जा रहे हो?
सिर्फ मिट्टी है ये मिट्टी -
मिट्टी को मिट्टी में दफनाते हुए
रोते हो क्यों ?

काफ़िर....


मोहब्बत में नहीं है फ़र्क,जीने और मरने का,
उसी को देखकर जीते हैं, जिस काफ़िर पर दम निकले!

तेरी आँखों की नमकीन मस्तियाँ...

====================

तेरी आँखों की नमकीन मस्तियाँ
तेरी हंसी की बेपरवा गुस्ताखियाँ
तेरी जुल्फों की लहराती अंगडाइयां
नहीं भूलूंगा मैं ।
जब तक है जान, जब तक है जान ।।

====================

तेरा हाथ से हाथ छोड़ना
तेरा सायों का रुख मोड़ना
तेरा पलट के फिर न देखना
नहीं माफ़ करूंगा  मैं ।
जब तक है जान, जब तक है जान ।।

====================

बारिशों में  बेधड़क तेरे  नाचने से
बात-बात पर तेरे बेवजह रूठने से
छोटी-छोटी तेरी बच्कानियों से
मोहब्बत करूंगा मैं ।
जब तक है जान, जब तक है जान ।।

====================

तेरे झूठे कसमों-वादों से
तेरे जलते-सुलगते ख्वाबों से
तेरी बेरहम दुआओं से
नफ़रत करूँगा मैं ।
जब तक है जान, जब तक है जान ।।

====================

बताओ कितना प्यार करोगे???

हाथों की पोरों से जो भी
तुम महसूस करो,
वहां वहां तुम होठों की एक मोहर लगाते जाओ
इतना ही चुप चाप बताओ,कितना प्यार करोगे?
♥गुलज़ार♥

Tuesday 27 May 2014

एक पुराना मौसम लौटा...

===============================

http://youtu.be/9acOljdxekw

=================================
एक पुराना मौसम लौटा याद भरी पुरवाई भी,
ऐसा तो कम ही होता है वो भी हों तनहाई भी,

यादों की बौछारों से जब पलकें भीगने लगती हैं,
कितनी सौंधी लगती है तब माझी की रुसवाई भी,

दो दो शक़्लें दिखती हैं इस बहके से आईने में,
मेरे साथ चला आया है आप का इक सौदाई भी,

ख़ामोशी का हासिल भी इक लंबी सी ख़ामोशी है,
उन की बात सुनी भी हमने अपनी बात सुनाई भी,

सफ्हे.....किताबों के..

कभी हवा की तरह" साहेब "
~~~~तमाम सफहे किताबों के,
फड़फड़ाने लगे,
हवा धकेल कर दरवाज़ा ,
आ गई घर में,
कभी हवा की तरह,
तुम भी,
आया जाया करो....
♥गुलज़ार साहिब♥

Sunday 11 May 2014

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो

तुम इतना जो मुस्कुरा रहे हो
क्या ग़म है जिस को छुपा रहे हो

आँखों में नमी हँसी लबों पर
क्या हाल है क्या दिखा रहे हो

बन जायेंगे ज़हर पीते पीते
ये अश्क जो पीते जा रहे हो

जिन ज़ख़्मों को वक़्त भर चला है
तुम क्यों उन्हें छेड़े जा रहे हो

रेखाओं का खेल है मुक़द्दर
रेखाओं से मात खा रहे हो

[कैफ़ी आज़मी]

Saturday 10 May 2014

Naseer Taurabi sahibs favorite nazam of mine...

कुछ इस अदा से आज वो पहलूनशीं रहे,
जब तक हमारे पास रहे, हम नहीं रहे..
---------**-------------------

तर्के-तअल्लुक़ात पे रोया न तू न मै
लेकिन ये क्या कि चैन से सोया न तू न मै
वो हमसफ़र था मगर उस से हमनवाई न थी
कि धूप छाँव का आलम रहा जुदाई न थी
वो हमसफ़र था मगर उस से हमनवाई न थी
के धूप छाँव का आलम रहा, जुदाई न थी
अदावतें थीं, तग़ाफ़ुल था, रंजिशें थीं मगर
बिछड़ने वाले में सब कुछ था, बेवफ़ाई न थी
न अपना रंज, न अपना दुख, न औरों का मलाल
शब-ए-फ़िराक़ कभी हम ने यूँ गँवाई न थी

बिछड़ते वक़्त, उन आँखों में थी हमारी ग़ज़ल
ग़ज़ल भी वो जो किसी को अभी सुनाई न थी

कभी ये हाल के दोनों में यक-दिली थी बहुत
कभी ये मर्हला, जैसे के आशनाई न थी

मुहब्बतों का सफ़र कुछ इस तरह भी गुज़रा था
शिकस्ता-दिल थे मुसाफ़िर, शिकस्ता-पाई न थी

किसे पुकार रहा था वो डूबता हुआ दिन
सदा तो आई थी, लेकिन कोई दुहाई न थी

अजीब होती है राह-ए-सुख़न भी देख नसीर
वहाँ भी आ गए आख़िर, जहाँ रसाई न थी

[नसीर तुराबी]

==================

हमनवाई = अनुरूपता
आलम = अवस्था
अदावत = बैर
तग़ाफ़ुल= उदासीनता, उपेक्षा
मलाल = अफ़सोस
शब-ए-फ़िराक़ = जुदाई की रात
यक-दिली = घनिष्ठता, एकता,
मर्हला = पड़ाव, stage
आशनाई = जान-पहचान
शिकस्ता-दिल = heartbroken
शिकस्ता-पाई = पैरों का टूटा हुआ होना
सदा = आवाज़
राह-ए-सुख़न = बातचीत की राह
रसाई = पहुँच

=========================

tar'k-e- taalukaat pe na roya tu , na mae
Lekin ye kya ki chaain sae sooya na tu , na mae

At the abandoning of relations, neither you shed tears nor I,
But how is that neither you slept serenely, nor dozed off I?

Jab tak bikaa na tha tau koi poochta na tha,
Tau nay mujhay kahreed kay anmol kardiya!

Until I was haggled off, not a person cared for me,
You bought me and I became invaluable suddenly!

Suna hai gair ki mehfil main tum na jaao gay
Kaho hau sajaluu aaj ghareeb kahnay ko

I hear you’ve decided against gracing the stranger’s gatherings,
Should I garland my humble dwelling, expecting your august company?

Woh humsafar tha , magar us sae humnawayee na thii
Ke dhoop chavun ka aalam raha , judaii na thi

Though fellow travellers in the journey, yet towards her I felt no camaraderie,
Clouds concealed the sun intermittently, though never did we part company!

Na apna ranj , na auurun ka dukh , na tera malal
Shab- e -firaq kabhii hum nae yun gunwaayi na thii

Neither grieving for myself nor for others, sans any grievance against you,
Never ever had I frittered the separation night in such a bizarre gaiety!

Mohabatuun ka safar is tarha bhi guzra tha
Shikastaa dil thae musafir , shikast payee na thii

At times the journey of love was accompanied by an unusual peculiarity:
The travellers’ were heart broken, yet never did their feet tread slowly!

Aadawatein thee , taghaful tha ,  ranjishaen thii
Bicharnay walay mae sab kuch tha , bewafii na thii

There was negligence, unpleasantness and bitter animosity,
The beloved who forsook me harboured all but infidelity!

Bichadtay waqt un aankhun mae thi hamari ghazal
Ghazal bhi woh jo abhi kisi ko sunayee na thi

At the time of parting, those eyes sparkled with my melody,
And such a melody as had not yet been narrated to anybody!

Kabhi yeh haal kii donun mae yak- dilii thii bohatt
Kabhi ye marhala jaisay aashnayee na thii

Time was such that the hearts revelled in hordes of unanimity,
Now is such time:  we deny the tiniest inkling of any familiarity!

Kisay pukaar raha tha wo dubta huwa din
Sadaa tou aaii thi lekin , koi duhaaii na thii

Who was it crying for – the day that sank into the horizon rapidly?
An echo resonated across, yet it was not a wail screamed in agony!

ajeeb hoti hay rah`e sukHan bhi dekh Naseer
wahaN bhi aa gaye akHir jahaN rasayi na thi

Naseer look! The alley of poetry is attired in a bizarre eccentricity
I was finally reduced to mumbling incoherently and ineffectually!

[ Naseer Turabi translation]
                  By
   
                   [Huzaif]

Friday 9 May 2014

आदर - इमरोज़ साहब की नज़म अमृता जी के लिए

आदर........

किताबें पढने से लिखना पढ़ना आ जाता है
ज़िन्दगी पढ़ने से जीना
और प्यार करने से प्यार करना ......

सिगलीगरों ने पढ़ाई तो कोई नहीं की
पर ज़िन्दगी से पढ़ लिया लगता है
सिगलीगरों की लड़की जवान होकर
जिसके साथ जी चाहे चल फ़िर सकती है
दोस्ती कर सकती है
और जब वह अपना मर्द चुन लेती है
एक दावत करती है अपना मर्द चुनने की खुशी में
अपने सारे दोस्तों को बुलाती है
और सबसे कहती है कि आज अपनी दोस्ती पूरी हो गई
और उसका मन चाहा सबसे हाथ मिलाता है
फ़िर सब मिलके दावत का जश्न करते हैं ......

कुछ दिनों से ये दावत और ये दिलेरी जीने की
मुझे बार बार याद आती रही है
जो पढ़े लिखों की ज़िन्दगी में अभी तक नहीं आई
मेरे एक दोस्त को ज़िन्दगी के आखिरी पहर में
मोहब्बत हो गई ...
एक सयानी और खूबसूरत औरत से
दोस्त आप भी बहुत सयाना है- अच्छा है
मोहब्बत होने के बाद वो अपने घर में अपना नहीं रहा
घर में होते हुए भी घर में नहीं हो पाता
अब वो घरवाला ही नहीं रहा
पत्नी के पास पति भी नहीं रहा
पत्नी तो एक तरह से छूट चुकी थी
पर संस्कार नहीं छूट रहे थे .....

पता नहीं वो
आप नहीं जा पा रहा था
या जाना नहीं चाह रहा था
या संस्कार नहीं छोड़े जा रहे थे
मोहब्बत दूर खड़ी रास्ता देख रही थी
उसका जो अभी जाने के लिए तैयार नहीं था ......

जब पत्नी को पति की मोहब्बत का पता चला
पत्नी पत्नी नहीं रही न ही कोई रिश्ता रिश्ता रहा

मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
पूछा सिर्फ़ हाज़र को जा सकता है
गैर हाज़र पति को क्या पूछना ....?
वह चुपचाप हालात को देख रही है
और अपने अकेले हो जाने को मान कर
अपने आप के साथ जीना सोच रही है ......

मोहब्बत ये इल्जाम कबूल नहीं करती
कि वो घर तोड़ती है
वह तो घर बनाती है
ख्यालों से भी खूबसूरत घर .......

सच तो ये है मोहब्बत बगैर
घर बनता ही नहीं ......

पत्नी अब एक औरत है
अपने आप की आप जिम्मेदार और ख़ुदमुख्तियार
चुपचाप चारों तरफ़ देखती है
घर में बड़ा कुछ बिखरा हुआ नज़र आता है
कल के रिश्ते की बिखरी हुई मौजूदगी
और एक अजीब सी खामोशी भी
वह सब बिखरा हुआ बहा देती है
और चीजों को संवारती है सजाती है
और सिगलीगरों की तरह एक दावत देने की
तैयारी करती है .......

इस तैयारी में बीते दोस्त दिन भी जैसे
उसमें आ मिले हों
मर्द को विदा करने के लिए .....

वह जा रहे मर्द की मर्ज़ी का खाना बनाती है
उसके सामने बैठकर उसे खाना खिलाती है
वो आँखें होते हुए भी आँखें नहीं मिलाता
सयानप होते हुए भी कुछ नहीं बोलता
वो चुपचाप खाना खाता है ....

उसकी सारी हौंद चुप रह कर भी बोल रही है
कि वो मोहब्बत में है
यहाँ चुप रहना ही सयानप है
कोई सफाई देने की जरुरत ही नहीं
कारण की भी नहीं
मोहब्बत का कोई कारण नहीं होता ....

जाते वक्त औरत
पैरों को हाथ लगाने की बजाये
मर्द से पहली बार हाथ मिलाती है
और कहती है- पीछे मुड़कर न देखना
आपकी ज़िन्दगी आपके सामने है
और 'आज ' में है
अपने आज का ख्याल रखना
मेरे फ़िक्र अब मेरे हैं
और मैं अपना ख्याल रख सकती हूँ .....

जो कभी नहीं हुआ वह आज हो रहा है
पर आज ने रोज़ आना है
ज़िन्दगी को आदर के साथ जीने के लिए भी
आदर के साथ विदा करने के लिए भी
और आदर से विदा होने के लिए भी .......!!

..... इमरोज़..

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले

ऐ ज़िंदगी गले लगा ले
हमने भी तेरे हर इक ग़म को
गले से लगाया है - है ना
ऐ ज़िंदगी ...

हमने बहाने से, छुपके ज़माने से
पलकों के परदे में, घर कर लिया  
तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी

तेरा सहारा मिल गया है ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी ...

छोटा सा साया था,  आँखों में आया था
हमने दो बूंदो से मन भर लिया    
हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी,
हमको किनारा मिल गया है ज़िंदगी
ऐ ज़िंदगी ..
[गुलज़ार साहब]

दिल बोने की कोशिश

दिल बोने की कोशिश
=================
~~~~~~~~~~~~~~~~
===================

एक ही ख़्बाव ने सारी रात जगाया है,
मैंने हर करवट सोने की कोशिश की,
इक सितारा,जल्दी जल्दी डूब गया,
मैंने जब तारे गिनने की कोशिश की,
नाम मेरा था और पता अपने घर का,
उसने मुझको ख़त लिखने की कोशिश की,
इक धुँये का मरघोला सा निकला है,
मिट्टी में जब ♥दिल बोने♥की कोशिश की
[गुलज़ार साहब]

नैना मेरे नीर बहायें...

दो नैनो में आँसू भरे हैं, निंदिया कैसे समाये

डूबी डूबी आखों में, सपनों के साये
रातभर अपने हैं, दिन में पराये
कैसे नैनों में निंदिया समाये

झूठे तेरे वादों पे बरस बिताये
जिंदगी तो काटी, ये रात कट जाये
कैसे नैनों में निंदिया समाये

दो नैनो में आँसू भरे हैं, निंदिया कैसे समाये
[गुलज़ार साहब]

फुर्सत में रात दिन...गुलज़ार साहब के ख्यालों में घुलने की कोशिश

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते,
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते,

जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन,
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते,

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा,
जानेवालों के लिये दिल नहीं तोड़ा करते,

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो,
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते
=========================

तेरी सीमाए कोई नही है
बहते जाना बहते जाना है
दर्द ही दर्द है सहते रहना
सहते जाना है

तेरे होते दर्द नहीं था
दिन का चेहरा ज़र्द नहीं था
तुमसे रूठ के मरते रहना
मरते रहना है...
========================
तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं
फिर भी तेरा इंतज़ार हैं

तेरे लिए सूरज उगाया हैं, तेरे लिए रास्ता बिछाया हैं
तेरे लिए सूरज उगाया हैं, तेरे लिए मौसम मँगाया हैं
यह जहाँ एक पार हैं
तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं

चलो चले चलते ही, चलते ही चलते रहे
आओ खूब हँसे, हँसते ही, हँसते ही हँसते रहे
दिल पे कहाँ इख्तियार हैं
तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं
========================
एक बार तुम को जब बरसते पानीओं के पार देखा था
यूँ लगा था जैसे गुनगुनाता एक आबशार देखा था
तब से मेरी नींद में बरसती रहती हो
बोलती बहोत हो और हँसती रहती हो
जो तुझे जानता न हो, उस से तेरा नाम पूछना
ये मुझे क्या हो गया?

देखो यूँ खुले बदन तुम गुलाबी साहीलों पे आया ना करो तुम
नमक भरे समन्दरों में इस तरह नहाया ना करो
सारा दिन चाँदनी सी छाई रहती हैं
और गुलाबी धूंप बौखलाई रहती हैं
जामूनों की नर्म डाल पे, नाखूनों से नाम खोदना
ये मुझे क्या हो गया?

==========================
किस क़दर सीधा सहल साफ़ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर
न कोई दाग़ जहाँ बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चन्द क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चन्द क़दम
और फिर टूट के गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिये आप चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं
किस क़दर सीधा, सहल साफ़ है यह रस्ता.
==========================
छोड़ आये हम वो गलियाँ ,
जहाँ तेरे पैरों के कँवल गिरा करते थे,
हँसें तो दो गालों में भँवर पड़ा करते थे,
तेरी कमर के बल पे नदी मुंडा करती थी,
हँसी तेरी सुन सुन के फ़सल पका करती थी,

जहाँ तेरी डेडी(ड्योढ़ी)से धूप उड़ा करती थी,
सुना है उस चौखट पे अब शाम रहा करती है,
लटों से उलझी लिपटी इक रात हुआ करती थी,
कभी कभी तकिये पे वो भी मिला करती है,

दिल दर्द का टुकड़ा है पत्थर की डली सी है,
इक अंधा कुँआ है या इक बन्द गली सी है,
इक छोटा सा लम्हा है जो ख़त्म नहीं होता,
मैं लाख जलाता हूँ ये भस्म नहीं होता
==========================

मिट्टी में प्ले इक दर्द की ठण्डी धूप तले,
जड़ पकड़ती इक कसक,
कटती है मगर फटती नहीं,
मिट्टी और पानी और हवा,
कुछ रोशनी और तारीकी कुछ,
जब बीज की आँख में झाँकते हैं,तब,
पौधा,,,गर्दन ऊँची करके,
मुँह ,नाक,नज़र दिखाता है,
पौधे के पत्ते पत्ते पर,,,कुछ प्रश्न भी है !! कुछ उत्तर भी !!,
किस मिट्टी की कोख से हो ??
किस मौसम ने पाला पोसा ?? और,
सूरज का छिड़काव किया ?? कि,
सिमट गई शाखें उसकी,
कुछ पत्तों के चेहरे ऊपर हैं,आकाश की जानिव तकते हैं,
कुछ लटके हुये गमगीन,
मगर शाखों की रंगों से बहते हुये पानी से जुड़े,
मिट्टी के तले इक बीज से आकर पूछते हैं,
हम,,,,,तुम तो नहीं ,,,पर,,,,,पूँछना है कि,,,!!,
तुम हमसे,,,या,,हम तुमसे हैं????
प्यार अगर वो बीज है,तो,,,,
इक प्रश्न भी है,,,!!,,,,इक उत्तर भी,,
==========================
आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते

वक़्त गुज़रा नही अभी वरना
रेत पर पाँव के निशाँ होते

मेरे आगे नही था अगर कोई
मेरे पीछे तो कारवा होते

तेरे साहिल पे लौट कर आती
अगर उम्मीदो के बादबा होते

आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते..
========================

गुलज़ार साहब