Wednesday 7 May 2014

एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने...तेरी* दीपू* की बच्ची

एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने
तूने साड़ी में उड़स ली हैं मेरी चाभियां घर की
और चली आई है बस यूं ही मेरा हाथ पकड़ कर
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

मेज़ पर फूल सजाते हुए देखा है कई बार
और बिस्‍तर से कई बार जगाया है तुझको
चलते-फिरते तेरे क़दमों की वो आहट भी सुनी है
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

क्‍यों । चिट्ठी है या कविता ।
अभी तक तो कविता है ।

गुनगुनाती हुई निकली है नहाके जब भी
और, अपने भीगे हुए बालों से टपकता पानी
मेरे चेहरे पे छिटक देती है तू *दीपू* की बच्‍ची
एक ही ख्‍वाब कई बार देखा है मैंने ।

ताश के पत्‍तों पे लड़ती है कभी-कभी खेल में मुझसे
और लड़ती है ऐसे कि बस खेल रही है मुझसे
और आग़ोश में नन्‍हे को लिए
will you shut up?

और जानती है *दीपू*, जब तुम्‍हारा ये ख्‍वाब देखा था ।
अपने बिस्‍तर पे मैं उस वक्‍त पड़ा जाग रहा था ।।

गुलज़ार साहब