Wednesday 7 May 2014

मै कुछ कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको≈ ≈ गुलज़ार


मैं कुछ-कुछ भूलता जाता हूँ अब तुझको
तेरा चेहरा भी धुँधलाने लगा है अब तख़य्युल में
बदलने लग गया है अब वह सुबह शाम का मामूल
जिसमें तुझसे मिलने का भी एक मामूल शामिल था

तेरे ख़त आते रहते थे
तो मुझको याद रहते थे
तेरी आवाज़ के सुर भी
तेरी आवाज़, को काग़ज़ पे रखके
मैंने चाहा था कि पिन कर लूँ
कि जैसे तितलियों के पर लगा लेता है कोई अपनी एलबम में

तेरा बे को दबा कर बात करना
"वाओ" पर होठों का छल्ला गोल होकर घूम जाता था
बहुत दिन हो गए देखा नहीं
ना ख़त मिला कोई
बहुत दिन हो गए सच्ची
तेरी आवाज़ की बौछार में भीगा नहीं हूँ मैं