Friday 9 May 2014

फुर्सत में रात दिन...गुलज़ार साहब के ख्यालों में घुलने की कोशिश

हाथ छूटे भी तो रिश्ते नहीं छोड़ा करते,
वक़्त की शाख से लम्हे नहीं तोड़ा करते,

जिसकी आवाज़ में सिलवट हो निगाहों में शिकन,
ऐसी तस्वीर के टुकड़े नहीं जोड़ा करते,

शहद जीने का मिला करता है थोड़ा थोड़ा,
जानेवालों के लिये दिल नहीं तोड़ा करते,

लग के साहिल से जो बहता है उसे बहने दो,
ऐसे दरिया का कभी रुख़ नहीं मोड़ा करते
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तेरी सीमाए कोई नही है
बहते जाना बहते जाना है
दर्द ही दर्द है सहते रहना
सहते जाना है

तेरे होते दर्द नहीं था
दिन का चेहरा ज़र्द नहीं था
तुमसे रूठ के मरते रहना
मरते रहना है...
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तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं
फिर भी तेरा इंतज़ार हैं

तेरे लिए सूरज उगाया हैं, तेरे लिए रास्ता बिछाया हैं
तेरे लिए सूरज उगाया हैं, तेरे लिए मौसम मँगाया हैं
यह जहाँ एक पार हैं
तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं

चलो चले चलते ही, चलते ही चलते रहे
आओ खूब हँसे, हँसते ही, हँसते ही हँसते रहे
दिल पे कहाँ इख्तियार हैं
तू मेरे पास भी हैं, तू मेरे साथ भी हैं
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एक बार तुम को जब बरसते पानीओं के पार देखा था
यूँ लगा था जैसे गुनगुनाता एक आबशार देखा था
तब से मेरी नींद में बरसती रहती हो
बोलती बहोत हो और हँसती रहती हो
जो तुझे जानता न हो, उस से तेरा नाम पूछना
ये मुझे क्या हो गया?

देखो यूँ खुले बदन तुम गुलाबी साहीलों पे आया ना करो तुम
नमक भरे समन्दरों में इस तरह नहाया ना करो
सारा दिन चाँदनी सी छाई रहती हैं
और गुलाबी धूंप बौखलाई रहती हैं
जामूनों की नर्म डाल पे, नाखूनों से नाम खोदना
ये मुझे क्या हो गया?

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किस क़दर सीधा सहल साफ़ है यह रस्ता देखो
न किसी शाख़ का साया है, न दीवार की टेक
न किसी आँख की आहट, न किसी चेहरे का शोर
न कोई दाग़ जहाँ बैठ के सुस्ताए कोई
दूर तक कोई नहीं, कोई नहीं, कोई नहीं

चन्द क़दमों के निशाँ, हाँ, कभी मिलते हैं कहीं
साथ चलते हैं जो कुछ दूर फ़क़त चन्द क़दम
और फिर टूट के गिरते हैं यह कहते हुए
अपनी तनहाई लिये आप चलो, तन्हा, अकेले
साथ आए जो यहाँ, कोई नहीं, कोई नहीं
किस क़दर सीधा, सहल साफ़ है यह रस्ता.
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छोड़ आये हम वो गलियाँ ,
जहाँ तेरे पैरों के कँवल गिरा करते थे,
हँसें तो दो गालों में भँवर पड़ा करते थे,
तेरी कमर के बल पे नदी मुंडा करती थी,
हँसी तेरी सुन सुन के फ़सल पका करती थी,

जहाँ तेरी डेडी(ड्योढ़ी)से धूप उड़ा करती थी,
सुना है उस चौखट पे अब शाम रहा करती है,
लटों से उलझी लिपटी इक रात हुआ करती थी,
कभी कभी तकिये पे वो भी मिला करती है,

दिल दर्द का टुकड़ा है पत्थर की डली सी है,
इक अंधा कुँआ है या इक बन्द गली सी है,
इक छोटा सा लम्हा है जो ख़त्म नहीं होता,
मैं लाख जलाता हूँ ये भस्म नहीं होता
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मिट्टी में प्ले इक दर्द की ठण्डी धूप तले,
जड़ पकड़ती इक कसक,
कटती है मगर फटती नहीं,
मिट्टी और पानी और हवा,
कुछ रोशनी और तारीकी कुछ,
जब बीज की आँख में झाँकते हैं,तब,
पौधा,,,गर्दन ऊँची करके,
मुँह ,नाक,नज़र दिखाता है,
पौधे के पत्ते पत्ते पर,,,कुछ प्रश्न भी है !! कुछ उत्तर भी !!,
किस मिट्टी की कोख से हो ??
किस मौसम ने पाला पोसा ?? और,
सूरज का छिड़काव किया ?? कि,
सिमट गई शाखें उसकी,
कुछ पत्तों के चेहरे ऊपर हैं,आकाश की जानिव तकते हैं,
कुछ लटके हुये गमगीन,
मगर शाखों की रंगों से बहते हुये पानी से जुड़े,
मिट्टी के तले इक बीज से आकर पूछते हैं,
हम,,,,,तुम तो नहीं ,,,पर,,,,,पूँछना है कि,,,!!,
तुम हमसे,,,या,,हम तुमसे हैं????
प्यार अगर वो बीज है,तो,,,,
इक प्रश्न भी है,,,!!,,,,इक उत्तर भी,,
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आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते

वक़्त गुज़रा नही अभी वरना
रेत पर पाँव के निशाँ होते

मेरे आगे नही था अगर कोई
मेरे पीछे तो कारवा होते

तेरे साहिल पे लौट कर आती
अगर उम्मीदो के बादबा होते

आप अगर इन दिनो यहाँ होते
हम ज़मीन पर भला कहाँ होते..
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गुलज़ार साहब