Wednesday 7 May 2014

किताबे झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से -- गुलज़ार


किताबे झाँकती हैं बंद अलमारी के शीशों से
बड़ी हसरत से तकती हैं
महीनों अब मुलाकातें नहीं होतीं
जो शामें इनकी सोहबत में कटा करती थीं
अब अक्सर...
गुजर जाती है 'कंप्यूटर' के पर्दों पर
बड़ी बेचैन रहती हैं किताबें...
इन्हें अब नींद में चलने की आदत हो गई है
बड़ी हसरत से तकती हैं,
जो कदरें वो सुनाती थीं,
कि जिनके 'सेल' कभी मरते नहीं थे
वो कदरें अब नज़र आती नहीं घर में
जो रिश्ते वो सुनाती थीं
वह सारे उधड़े उधड़े हैं
कोई सफ़ा पलटता हूँ तो इक सिसकी निकलती है
कई लफ़्जों के मानी गिर पड़े हैं
बिना पत्तों के सूखे ठूंठ लगते हैं वो सब अल्फ़ाज़
जिन पर अब कोई मानी नहीं उगते
बहुत सी इस्तलाहें हैं
जो मिटटी के सकोरों की तरह बिखरी पड़ी हैं
गिलासों ने उन्हें मतरुक कर डाला
ज़ुबां पर ज़ायका आता था जो सफ़्हे पलटने का
अब उंगली 'क्लिक' करने से बस इक
झपकी गुज़रती है
बहुत कुछ तह-ब-तह खुलता चला जाता है परदे पर
किताबों से जो ज़ाती राब्ता था, कट गया है
कभी सीने पे रख के लेट जाते थे
कभी गोदी में लेते थे,
कभी घुटनों को अपने रिहल की सूरत बना कर
नीम-सजदे में पढ़ा करते थे, छूते थे जबीं से
वो सारा इल्म तो मिलता रहेगा आइन्दा भी
मगर वो जो किताबों में मिला करते थे सूखे फूल
और महके हुए रुक़्क़े
किताबें मँगाने, गिरने, उठाने के बहाने रिश्ते बनते थे
उनका क्या होगा?
वो शायद अब नही होंगे !

-- गुलज़ार