Monday 2 June 2014

बस.....गुलज़ार साहिब

ऎसा कोई ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था,
तेरे बिना जीने का इरादा तो नहीं था...

तेरे लिए रातों में चांदनी उगाई थी,
क्यारियों में ख़ुशबू की रौशनी लगाई थी,
जाने कहाँ टूटी है डोर मेरे ख्वाब की,
ख्वाब से जागेंगे सोचा तो नहीं था...
ऎसा कोई ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था,
तेरे बिना जीने का इरादा तो नहीं था...

शामियाने शामों के रोज़ ही सजाये थे,
कितनी उम्मीदों के मेहमां बुलाये थे,
आके दरवाज़े से लौट गए हो,
यूँ भी कोई आएगा सोचा तो नहीं था...
ऎसा कोई ज़िन्दगी से वादा तो नहीं था,
तेरे बिना जीने का इरादा तो नहीं था.....