टुकड़ा इक नज़्म का
दिन भर मेरी साँसों में सरकता ही रहा
लब पे आया तो जबां कटने लगी
दांत से पकड़ा तो लब छिलने लगे
ना तो फेंका ही गया मुंह से,
ना निगला ही गया
कांच का टुकड़ा अटक जाए हलक़ में जैसे
टुकड़ा वो नज़्म का साँसों में सरकता ही रहा...
प्यार भरे दो शर्मीले नैन जिनसे मिला मेरे दिल को चैन कोई जाने ना क्यूं मुझसे शर्माए कैसे मुझे तड़पाए दिल ये कहे गीत मैं तेरे गाऊँ तू ही सुने और मैं गाता जाऊं तू जो रहे साथ मेरे दुनिया को ठुकराऊं तेरा दिल बहलाऊँ रूप तेरा कलियों को शर्माये कैसे कोई अपने दिल को बचाये पास है तू फिर भी जानम कौन तुझे समझाये सावन बीता जाये डर है मुझे तुझसे बिछड़ ना जाऊं खो के तुझे मिलने की राह न पाऊँ ऐसा न हो जब भी तेरा नाम लबों पर लाऊँ मैं आंसूं बन जाऊं जिनसे मिला मेरे दिल को...