Wednesday, 7 May 2014

-छाँव्-छाँव्- गुलज़ार साहिब

मैं छाँव्-छाँव् चला था अपना बदन बचाकर
कि रूह को एक खुबसुरत-सा जिस्म दे दूँ
न कोई सिलवट, न दाग कोई
न धूप झुलसे, न चोट खाये
न ज़ख्म छुए, न दर्द पहुँचे
बस एक कोरी कुँवारी सुबह का जिस्म पहना दूँ रूह को मैं

मगर तपी जब दोपहर दर्दों की, दर्द की धूप से जो गुज़रा
तो रूह को छाँव् मिल गयी है

अजीब है दर्द और तस्की का साँझा रिश्ता
मिलेगी छाँव् तो बस कही धूप में मिलेगी...