खिड़कियाँ बंद है दीवारों के सीने ठन्डे
पीठ फेरे हुए दरवाजों के चेहरे चुप है
मेज़-कुर्सी है कि खामोंशी के धब्बे जैसे
फर्श में दफन है सब आहटें सारे दिन की
सारे माहौल पे ताले-से पड़े है चुप के
तेरी आवाज़ की इक बूंद जो मिल जाये कहीं
आखरी साँसों पे है रात- ये बच जायेगी...