Wednesday, 7 May 2014

छोड़ आए हम वो गलियाँ

छोड़ आए हम वो गलियाँ

छोड़ आए हम वो गलियाँ

जहाँ तेरे पैरो के कँवल गिरा करते थे
हँसे तो दो गालों में भँवर पड़ा करते थे
तेरे कमर के बल पे, नदी मूडा करती थी
हँसी तेरी सुनसून के फसल पका करती थी

जहाँ तेरी एडी से धूप उड़ा करती थी
सूना हैं उस चौखट पे अब शाम रहा करती है
लटों से उलझी लिपटी एक रात हुआ करती थी
कभी कभी तकिये पे वो भी मिला करती है

दिल दर्द का टुकड़ा है, पत्थर की डाली सी है
एक अँधा कुवा हैं या, एक बंद गली सी है
एक छोटा लम्हा हैं , जो ख़त्म नहीं होता
मैं लाख जलाता हूँ, वो भस्म नहीं होता

[Gulzar saab]